श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
प्रश्न- ‘स्वधर्मः’ के साथ विगुण विशेषण देने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘विगुणः’ पद गुणों की कमी का द्योतक है। क्षत्रिय का स्वधर्म युद्ध करना और दुष्टों को दण्ड देना आदि है; उसमें अहिंसा और शान्ति आदि गुणों की कमी मालूम होती है। इसी तरह वैश्य के ‘कृषि’ आदि कर्मों में भी हिंसा आदि दोषों की बहुलता है, इस कारण ब्राह्मणों के शान्तिमय कर्मों की अपेक्षा वे भी विगुण यानी गुणहीन हैं एवं शूद्रों के कर्म तो वैश्यों और क्षत्रियों की अपेक्षा भी निम्न श्रेणी के हैं। इसके सिवा उन कर्मों के पालन में किसी अंग का छूट जाना भी गुण की कमी है। उपर्युक्त प्रकार से स्वधर्म में गुणों की कमी रहने पर भी वह पर धर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, यही भाव दिखलाने के लिये ‘स्वधर्मः’ के साथ ‘विगुणः’ विशेषण दिया गया है। प्रश्न- ‘स्वभावनियतम्’ विशेषण सहित ‘कर्म’ पद किसका वाचक है और उसको करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जिस वर्ण और आश्रम में स्थित मनुष्य के लिये उसके स्वभाव के अनुसार जो कर्म शास्त्र द्वारा विहित हैं, वे ही उसके लिये ‘स्वभावनियत’ कर्म हैं। अतः उपर्युक्त स्वधर्म का ही वाचक यहाँ ‘स्वभावनियतम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है। उन कर्मों को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता- इस कथन का यहाँ यह भाव है कि उन कर्मों का न्यायपूर्वक आचरण करते समय उनमें जो उनुषिगिक हिंसादि पाप बन जाते हैं, वे उसको नहीं लगते, और दूसरे का धर्म पालन काने से उसमें हिंसादि दोष कम होने पर भी परवृन्तिच्छेदन आदि पाप लगते हैं। इसलिये गुणरहित होने पर भी स्वधर्म गुणयुक्त परधर्म अपेक्षा श्रेष्ठ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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