श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
उत्तर- जिस धर्म का अनुष्ठान सांगोपांग किया जाय, उसको ‘सु-अनुष्ठित’ कहते हैं। परन्तु इस श्लोक में स्वधर्म के साथ विगुण विशेषण दिया गया है, अतः परधर्म के साथ गुण-सम्पन्न विशेषण का अध्याहार करके यहाँ यह भाव समझना चाहिये कि जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किन्तु वे अनुष्ठान करने वाले के लिये विहित न हो, दूसरों के लिये ही विहित हों-वैसे कर्मों का वाचक यहाँ ‘स्वनुष्ठितात्’ विशेषण के सहित ‘परधर्मात्’ पद है। वैश्य क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सदगुणों की अधिकता है, गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास-आश्रम के धर्मों में सद्गुणों की बहुलता है, इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्य और क्षत्रिय के कर्म गुणयुक्त हैं, अतएव उपर्युक्त उस पर धर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म को श्रेष्ठ बतलाकर यह भाव दिखलाया गया है कि जैसे देखने में कुरूप और गुणरहित होने पर भी स्त्री के लिये अपने पति का सेवन करना ही कल्याणप्रद है- उसी प्रकार देखने में गुणों से हीन होने पर भी तथा उसके अनुष्ठान में अंगवैगुण्य हो जाने पर भी जिसके लिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्याणप्रद है। प्रश्न- ‘स्वधर्मः’ पद किसका वाचक है? उत्तर- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो कर्म विहित है, उसके लिये वही स्वधर्म है। अभिप्राय यह है कि झूठ, कपट, चोरी, हिंसा, ठगी, व्यभिचार आदि निषिद्ध कर्म तो किसी के भी स्वधर्म नहीं हैं, और काम्य कर्म भी किसी के लिये अवश्य कर्तव्य नहीं हैं। इस कारण उनकी गणना यहाँ किसी के स्वधर्मों में नहीं हैं। इनको छोड़कर जिस वर्ण और आश्रम के जो विशेष धर्म बतलाये गये हैं, जिनमें एक-से दूसरे वर्ण-आश्रम वालों का अधिकार नहीं है- वे तो उन-उन वर्ण-आश्रम वालों के अलग-अलग स्वधर्म हैं और जिन कर्मों में द्विजमात्र का अधिकार बतलाया गया है, वे वेदाध्ययन और यज्ञादि कर्म द्विजों के लिये स्वधर्म हैं। तथा जिनमें सभी वर्णाश्रमों के स्त्री-पुरुषों का अधिकार है, वे ईश्वर-भक्ति, सत्यभाषण, माता-पिता की सेवा, इन्द्रियों का संयम, ब्रह्मचर्य पालन और विनय आदि सामान्य धर्म सबके स्वधर्म हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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