श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
उत्तर- अन्तःकरण को अपने वश में करके उसे विक्षेपरहित-शान्त बना लेना तथा संसारिक विषयों के चिन्तन का त्याग कर देना ‘शम’ है। प्रश्न- ‘दम’ किसको कहते हैं? उत्तर- समस्त इन्द्रियों को वश में कर लेना तथा वश में की हुई इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर परमात्मा की प्राप्ति के साधनों में लगाना ‘दम’ है। प्रश्न- ‘तप’ का यहाँ क्या अर्थ समझाना चाहिये? उत्तर- स्वधर्मपालन के लिये कष्ट सहन करना- अर्थात् अहिंसादि महाव्रतों का पालन करना, भोग-सामग्रियों का त्याग करके सादगी से रहना एकादशी आदि व्रत-उपवास करना और वन में निवास करना- ये सब तप’ के अन्तर्गत हैं। प्रश्न- ‘शौच’ किसको कहते हैं? उत्तर- सोलहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘शौच’ की व्याख्या में बाहर की शुद्धि बतलायी गयी है और पहले श्लोक में सत्त्वशुद्धि के नाम से अन्तःकरण की शुद्धि बतलाई गयी है; उन दोनों का नाम यहाँ ‘शौच’ है। तेरहवें अध्याय के सातवें श्लोक में इसी शुद्धि का वर्णन है। अभिप्राय यह है कि मन, इन्द्रिय और शरीर को तथा उनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को पवित्र रखना, उनमें किसी प्रकार की अशुद्धि को प्रवेश न होने देना ही ‘शौच’ है। प्रश्न- ‘क्षान्ति’ किसको कहते हैं? उत्तर- दूसरों के द्वारा किये हुए अपराधों को क्षमा कर देना का नाम क्षान्ति है; दसवें अध्याय के चौथे श्लोक की व्याख्या में क्षमा के नाम से और तेरहवें अध्याय के सातवें श्लोक की व्याख्या में क्षान्ति के नाम से इस भाव को भलिभाँति समझाया गया है।’[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक बार गाधिपुत्र महाराज विश्वामित्र महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में जा पहुँचे। उसके साथ बहुत बड़ी सेना थी। नन्दिनी नामक कामधेनु गौ के प्रसाद से वसिष्ठ जी ने सेना समेत राजा को भाँति-भाँति के भोजन कराये और रत्न तथा वस्त्राभूषण दिये। विश्वामित्र का मन गौ के लिये ललचा गया और उन्होंने वसिष्ठ से गौ को माँगा। वसिष्ठ ने कहा- इस गौ को मैंने देवता, अतिथि, पितृगण और यज्ञ के लिये रख छोड़ा है; अतः इसे में नहीं दे सकता। विश्वामित्र को अपने जनबल और शास्त्रबल का गर्व था, उन्होंने जबरदस्ती नन्दिनी को ले जाना चाहा। नन्दिनी ने रोते हुए कहा- ‘भगवन्! विश्वामित्र के निर्दयी सिपाही मुझे बड़ी क्रूरता के साथ कोड़ों और डण्डों से मार रहे हैं, आप इनके इस अत्याचार की अपेक्षा कैसे कर रहे हैं?’ वसिष्ठ जी ने कहा-
क्षत्रियाणां बलं तेजो ब्राह्मणानां क्षमा बलम्।
क्षमा मां भजते यस्माद्गम्यतां यदि रोचते।। (महा., आदि. 174। 29)क्षत्रियों का बल तेज है और ब्राह्मणों का बल क्षमा। मैं क्षमा को नहीं छोड़ सकता, तुम्हारी इच्छा हो तो चली जाओ।’ नन्दिनी बोली- ‘यदि आप त्याग न करें तो बलपूर्वक मुझको कोई भी नहीं ले जा सकता।’ वसिष्ठ ने कहा-‘मैं त्याग नहीं करता, तुम रह सकती हो तो रह जाओ।’ इस पर नन्दिनी ने रौद्र रूप धारण किया, उसकी पूँछ से आग बरसने लगी; इसके बाद उसकी पूँछ से अनेको म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुईं। विश्वामित्र की सेना के छक्के छूट गये। नन्दिनी की सेना ने विश्वामित्र के एक भी सिपाही को नहीं मारा, वे सब डर के मारे भाग गये। विश्वामित्र को अपनी रक्षा करने वाला कोई भी नहीं दीख पड़ा। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा-
धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्। (महा., आदि. 174। 45)
‘क्षत्रिय के बल को धिक्कार है, असल में ब्राह्मण-तेज का बल ही बल है।’ इसके बाद शापवश राक्षस हुए राजा कल्माषपाद ने विश्वामित्र की प्रेरणा से वसिष्ठ के सभी पुत्रों को मार डाला, तो भी वसिष्ठ ने उनसे बदला लेने की चेष्टा न की। वाल्मीकि रामायण में आता है कि तदनन्तर विश्वामित्र राज्य छोड़कर महान तप करने लगे और हजारों वर्ष के उग्र तप के प्रताप से क्रमशः राजर्षि और महर्षि के पद को प्राप्त करके अन्त में ब्रह्मर्षि हुए। देवताओं के अनुरोध से क्षमाशील महर्षि वसिष्ठ ने भी उनको ‘ब्रह्मर्षि’ मान लिया। अन्त में-
विश्वामित्रेऽपि धर्मात्मा लब्ध्वा ब्राह्मण्मुत्तमम्। पूजयामास ब्रह्मर्षि वसिष्ठं जपतां वरम्।। (वाल्तीकीय रामायण 1।65।27)
धर्मात्मा विश्वामित्रने भी उत्तम ब्राह्मण पद पाकर मन्त्र-जप करने वालों में श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि श्रीवसिष्ठ जी की पूजा की।’
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