श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- अब तामस सुख का लक्षण बतलाते हैं- यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: ।
उत्तर- निद्रा के समय मन और इन्द्रियों की क्रिया बंद हो जाने के कारण थकावट से होने वाले दुःख का अभाव होने से तथा मन और इन्द्रियों को विश्राम मिलने से जो सुख की प्राप्ति होती है, उसे निद्राजनित सुख कहते हैं। वह सुख जितनी देर-तक निद्रा रहती है उतनी ही देर तक रहता है, निरन्तर नहीं रहता- इस कारण क्षणिक है। इसके अतिरिक्त उस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रकाश का अभाव हो जाता है, किसी भी वस्तु का अनुभव करने की शक्ति नहीं रहती। इस कारण वह सुख भोगकाल में आत्मा को यानी अन्तःकरण और इन्द्रियों को तथा इनके अभिमानी पुरुष को मोहित करने वाला है। और इस सुख की आसक्ति के कारण परिणाम में मनुष्य को अज्ञानमय वृक्ष, पहाड़, आदि जड़ योनियों में जन्म ग्रहण करना पड़ता है, अतएव यह परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है। इसी तरह समस्त क्रियाओं का त्याग करके पड़े रहने के समय जो मन, इन्द्रिय और शरीर के परिश्रम का त्याग कर देने से आराम की प्राप्ति होती है, वह आलस्यजनित सुख है। वह भी निद्रा-जनित सुख की भाँति मन, इन्द्रियों में ज्ञान के प्रकाश का आभाव करके भोगकाल में उन सबको मोहित करने वाला है तथा मोह और आसक्ति के कारण जड़ योनियों में गिराने वाला होने से परिणाम में भी मोहित करने वाला है। मन बहलाने के लिये आसक्तिवश की जाने-वाली व्यर्थ क्रियाओं का और अज्ञानवश कर्तव्य-कर्मों की अवहेलना करके उनके त्याग कर देने का नाम प्रसाद है। व्यर्थ क्रियाओं के करने में मन की प्रसन्नता के कारण और कर्तव्य का त्याग करने में परिश्रम से बचने के कारण मूर्खतावश जो सुख की प्राप्ति होती है, वह प्रमादजनित सुख है। जिस समय मनुष्य किसी प्रकार मन बहलाने की व्यर्थ क्रियाओं में संलग्न हो जाता है, उस समय उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, उसकी विवेक शक्ति मोह से ढक जाती है। और विवेकशक्ति के आच्छादित हो जाने से ही कर्तव्य की अवहेलना होती है। इस कारण यह प्रमादजनित सुभभोगकाल में आत्मा को मोहित करने वाला है। और उपर्युक्त व्यर्थ कर्मों में अज्ञान और आसक्तिवश होने वाले झूठ, कपट, हिंसा आदि पापकर्मों का और कर्तव्य-कर्मों के त्याग का फल भोगने के लिये ऐसा करने वालों को शूकर-कूकर आदि नीच योनियों की और नरकों की प्राप्ति होती है; इससे यह परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है। प्रश्न- वह सुख तामस है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि निद्रा, प्रमाद और आलस्य- ये तीनों ही तमोगुण के कार्य हैं[1]; अतएव इनमें उत्पन्न होने वाला सुख तामस सुख है। और इन निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि में सुख बुद्धि करवाकर ही यह तमोगुण मनुष्य को बाँधता है[2], इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्य को इस क्षणिक, मोहकारक और प्रतीतिमात्र के तामस सुख में नहीं फँसना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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