श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
इसी प्रकार और भी बहुत-से दुःखप्रद परिणाम होते हैं। इसलिये विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला यह क्षणिक सुख यद्यपि वस्तुतः सब प्रकार से दुःख रूप ही है, तथापि जैसे रोगी मनुष्य आसक्ति के कारण स्वाद के लोभ से परिणाम का विचार न करके कुपथ्य का सेवन करता है और परिणाम में रोग बढ़ जाने से दुःखी होता है या मृत्यु हो जाती है; अथवा जैसे पतंग नेत्रों के विषय रूप में आसक्त होने के कारण प्रयत्नपूर्वक सुखबुद्धि से दीपक की लौ के साथ टकराने में सुख मानता है किन्तु परिणाम में जलकर कष्ट-भोग करता है और मर जाता है- उसी प्रकार विषयासक्त मनुष्य भी मूर्खता और आसक्तिवश परिणाम का विचार न करके सुख-बुद्धि से विषयों का सेवन करता है और परिणाम में अनेकों प्रकार से भाँति-भाँति के भीषण दुःख भोगता है। प्रश्न- वह सुख राजस कहा जाता है, इस कथन का क्या भाव है। उत्तर- इस से यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त लक्षणों वाला जो प्रतीतिमात्र का क्षणिक सुख है, वह विषयासक्ति से ही सुख रूप प्रतीत होता है और आसक्ति रजोगुण का स्वरूप है अतः वह राजस है और आसक्ति के द्वारा मनुष्य को बाँधने वाला है[1] इसलिये कल्याण चाहने वाले को ऐसे सुख में नहीं फँसना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 14। 7
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