श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
विषयेन्द्रिसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
उत्तर- जिस समय राजस सुख की प्राप्ति के लिये मनुष्य मन और इन्द्रियों द्वारा किसी विषय सेवन का आरम्भ करता है, उस समय का वाचक यहाँ ‘अग्रे’ पद है। इस सुख की उत्पत्ति इन्द्रिय और विषयों के संयोग से होती है- इसका अभिप्राय यह है कि जब तक मनुष्य मन सहित इन्द्रियों के द्वारा किसी विषय का सेवन करता है, तभी तक उसे उस सुख का अनुभव होता है और आसक्ति के कारण वह उसे अत्यन्त प्रिय मालूम होता है; उस समय वह उसके सामने किसी भी अदृष्ट सुख को कोई चीज नहीं समझता। यही उस सुख का भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होना है। प्रश्न- राजस सुख परिणाम में विष के तुल्य है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि इस राजस सुख-भोग का परिणाम विष की भाँति दुःख प्रद है; यह राजस सुख प्रतीतिमात्र का ही सुख है, वस्तुतः सुख नहीं है। अभिप्राय यह है कि मन और इन्द्रियों द्वारा आसक्तिपूर्वक सुखबुद्धि से विषयों का सेवन करने से उनके संस्कार अन्तःकरण में जम जाते हैं, जिनके कारण मनुष्य पुनः उन्हीं विषय-भोगों की प्राप्ति की इच्छा करता है और उसके लिये आसक्तिवश अनेक प्रकार के पापकर्म कर बैठता है तथा उन पापकर्मों का फल भोगने के लिये उसे कीट, पतंग, पशु, पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है तथा यन्त्रणामय नरकों में पड़कर भीषण दुःख भोगने पड़ते हैं। विषयों में आसक्ति बढ़ जाने से पुनः उनकी प्राप्ति न होने पर अभाव के दुःख का अनुभव होता है। तथा उनसे वियोग होते समय भी अत्यन्त दुःख होता है। दूसरों के पास अपने से अधिक सुख-सम्पत्ति देखकर ईर्ष्या से जलन होती है; तथा भोग के अनन्तर शरीर में बल, वीर्य, बुद्धि, तेज और शक्ति के हास से और थकावट से भी महान् कष्ट का अनुभव होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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