श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- जिस समय मनुष्य सात्त्विक सुख की महिमा सुनकर उसको प्राप्त करने की इच्छा से उसकी प्राप्ति के उपायभूत विवेक, वैराग्य, शम, दम और तितिक्षा आदि साधनों में लगता है उस समय का वाचक यहाँ ‘अग्रे’ पद है। उस समय जिस प्रकार बालक अपने घर वालों से विद्या की महिमा सुनकर विद्याभ्यास की चेष्टा करता है, पर उसके महत्त्व का यथार्थ अनुभव न होने के कारण आरम्भ काल में अभ्यास करते समय उसे खेल-कूद को छोड़कर विद्याभ्यास में लगे रहना अत्यन्त और कष्टप्रद कठिन प्रतीत होता है, उसी प्रकार सात्त्विक सुख के लिये अभ्यास करने वाले मनुष्य को भी विषयों का त्याग करके संयमपूर्वक’ विवेक, वैराग्य, शम, दम और तितिक्षा आदि साधनों में लगे रहना अत्यन्त श्रमपूर्ण और कष्टप्रद प्रतीत होता है; यही आरम्भकाल में सात्त्विक सुख का विष के तुल्य प्रतीत होना है। प्रश्न- वह सुख परिणाम में अमृत के तुल्य है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह दिखलाया गया है कि जब सात्त्विक सुख की प्राप्ति के लिये साधन करते-करते साधक को उस ध्यानजनित सुख का अनुभव होने लगता है, तब उसे वह अमृत के तुल्य प्रतीत होता है; उस समय उसके सामने संसार के समस्त भोग-सुख तुच्छ, नगण्य और दुःखरूप प्रतीत होने लगते हैं। प्रश्न- वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से अभ्यास करते-करते निरन्तर परमात्मा का ध्यान करने के फल-स्वरूप अन्तःकरण के स्वच्छ होने पर इस सुख का अनुभव होता है, इसलिये इस सुख को परमात्म-बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला बतलाया गया है। और वह सुख सात्त्विक है- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि यही सुख उत्तम सुख है, राजस और तामस सुख वास्तव में सुख ही नहीं हैं। वे तो नाममात्र के ही सुख हैं, परिणाम में दुखरूप ही हैं; अतएव अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को राजस-तामस सुखों में न फँसकर निरन्तर सात्त्विक सुख में ही रमण करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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