श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
उत्तर- जिसकी बुद्धि अत्यन्त मंद और मलिन हो, जिसके अन्तःकरण में दूसरों का अनिष्ट करने आदि के भाव भरे रहते हों- ऐसे दुष्ट बुद्धि मनुष्य का वाचक ‘दुर्मेधाः’ पद है; इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि ऐसे मनुष्यों में तामसी ‘धृति’ हुआ करती है। प्रश्न- स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मद- ये शब्द अलग-अलग किन-किन भावों के वाचक हैं तथा धृति द्वारा इनको न छोड़ना अर्थात धारण किये रहना क्या है? उत्तर- निद्रा और तन्द्रा आदि जो मन और इन्द्रियों को तमसाच्छन्न, बाह्म क्रिया से रहित और मूढ़ बनाने वाले भाव हैं- उन सबका नाम स्वप्न है; धन आदि पदार्थों के नाश की मृत्यु की, दुःख प्राप्ति की, सुख के नाश की अथवा इसी तरह अन्य किसी प्रकार के इष्ट के नाश और अनिष्ट- प्राप्ति की आशंका से अन्तःकरण में जो एक आकुलता और घबड़ाहट भरी वृत्ति होती है- उसका नाम भय है; मन में होने वाली नाना प्रकार की दुश्चिन्ताओं का नाम शोक है; उसके द्वारा जो इन्द्रियों में संताप हो जाता है, उसे विषाद कहते हैं; यह शोक का ही स्थूल भाव है। तथा जो धन, जन और बल आदि के कारण होने वाली-विवेक, भविष्य के विचार और दूरदर्शिता से रहित-उन्मत्तवृत्ति है, उसे मद कहते हैं; इसी का नाम गर्व, घमन्ड और उन्मत्तता भी है। इन सबको तथा प्रमाद आदि उन्यान्य तामस भावों को जो अन्तःकरण से दूर हटाने की चेष्टा न करके इन्हीं में डूबे रहना है, यही धृति के द्वारा इनको न छोड़ना अर्थात् धारण किये रहना है। प्रश्न- वह धारण शक्ति तामसी है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि त्याग करने योग्य उपर्युक्त तामस भावों को जिस धृति के कारण मनुष्य छोड़ नहीं सकता, अर्थात् जिस धारण शक्ति के कारण उपर्युक्त भाव मनुष्य के अन्तःकरण में स्वभाव से ही धारण किये हुए होते रहते हैं- वह धृति तामसी है। यह धृति सर्वथा अनर्थ-में हेतु है, अतएव कल्याणकामी मनुष्य को इसका तुरन्त और सर्वतोभाव से त्याग कर देना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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