श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
धृत्या यया रधारयते मन:प्राणेन्द्रियक्रिया: ।
उत्तर- किसी भी क्रिया, भाव या वृत्ति को धारण करने की-उसे दृढ़तापूर्वक स्थिर रखने की जो शक्ति विशेष है, जिसके द्वारा धारण की हुई कोई भी क्रिया, भावना या वृत्ति विचलित नहीं होती, प्रत्युत चिरकाल तक स्थिर रहती है, उस शक्ति का नाम ‘धृति’ है; परन्तु इसके द्वारा मनुष्य जब तक भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से, नाना विषयों को धारण करता रहता है, तब तक इसका व्यभिचार दोष नष्ट नहीं होता; जब इसके द्वारा मनुष्य अपना एक अटल उद्देश्य स्थिर कर लेता है, उस समय यह ‘अव्याभिचारिणी’ हो जाती है। सात्त्विक धृति का एक ही उद्देश्य होता है- परमात्मा को प्राप्त करना इसी कारण उसे ‘अव्यभिचारिणी’ कहते हैं। इस प्रकार की धरण शक्ति का वाचक यहाँ ‘अव्यभिचारिण्या’ विशेषण के सहित ‘धृत्या’ पद है। ऐसी धरण शक्ति से जो परमात्मा को प्राप्त करने के लिये ध्यान योग द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को अटल रूप से परमात्मा में रोके रखना है– यही उपर्युक्त धृति से ध्यान योग्य के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करना है। प्रश्न- वह धृति सात्त्विकी है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो धृति परमात्मा की प्राप्ति रूप एक ही उद्देश्य में सदा स्थिर रहती है, जो अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं होती, जिसके भिन्न-भिन्न उद्देश्य नहीं हैं तथा जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति के लिये मन और इन्द्रिय आदि को परमात्मा में लगाये रखता है और किसी भी कारण से उनको विषयों में आसक्त और चंचल न होने देकर सदा-सर्वदा अपने वश में रखता है- ऐसी धृति सात्त्विक है। इस प्रकार की धारणशक्ति मनुष्य को शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति कराने वाली होती है। अतएव कल्याण चाहने वाले पुरुष को चाहिये कि वह अपनी धारण शक्ति को इस प्रकार सात्त्विक बनाने की चेष्टा करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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