श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- अब तामस कर्ता के लक्षण बतलाते हैं- अयुक्त: प्राकृत: स्तब्ध: शठो नैष्कृतिकोऽलस: ।
उत्तर- जिनके मन और इन्द्रियाँ वश में किये हुए नहीं हैं, बल्कि जो स्वयं उनके वशीभूत हो रहा है तथा जिसमें श्रद्धा और आस्तिकता का अभाव है- ऐसे पुरुष का वाचक ‘अयुक्तः’ पद है। प्रश्न- ‘प्राकृतः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- जिसको किसी प्रकार की सुशिक्षा नहीं मिली है, जिसका स्वभाव बालक के समान है जिसको अपने कर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं है[1], जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों का सुधार नहीं हुआ है- ऐसे संस्कार रहित स्वभाविक मूर्ख का वाचक प्राकृतः’ पद है। प्रश्न- ‘स्तब्धः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- जिसका स्वभाव अत्यन्त कठोर है, जिसमें विनय का अत्यन्त अभाव है, जो सदा ही घमन्ड में चूर रहता है- अपने सामने दूसरों को कुछ भी नहीं समझता- ऐसे घमंडी मनुष्य का वाचक ‘स्तब्धः’ पद है। प्रश्न- ‘शठः’ पद किसका वाचक है? उत्तर- जो दूसरों को ठगने वाला वंचक है, द्वेष को छिपाये रखकर गुप्त भाव से दूसरों का उपकार करने वाला है, मन-ही-मन दूसरों का अनिष्ट करने के लिये दाव-पेंच सोचता रहता है- ऐसे धूर्त मनुष्य का वाचक ‘शठः’ पद है। प्रश्न- ‘नैष्कृतिकः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- जो नाना प्रकार से दूसरों की जीविका का नाश करने वाला है, दूसरों की वृत्ति में बाधा डालना ही जिसका स्वभाव है- ऐसे मनुष्य का वाचक ‘नैष्कृतिकः’ पद है। प्रश्न- ‘अलसः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- जिसका रात-दिन पड़े रहने का स्वभाव है, किसी भी शास्त्रीय या व्यावहारिक कर्तव्य-कर्म में उसकी प्रवृत्ति और उत्साह नहीं होते, जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों में आलस्य भरा रहता है- ऐसे आलसी मनुष्य का वाचक ‘अलसः’ पद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 16। 7
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