अष्टादश अध्याय
प्रश्न- ‘अशुचिः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर- जिसमें शौचाचार और सदाचार का अभाव है अर्थात् जो न तो शास्त्रविधि के अनुसार जल-मृत्तिकादि से शरीर और वस्त्रादि को शुद्ध रखता है और न यथायोग्य बर्ताब करके अपने आचरणों को ही शुद्ध रखता है, किन्तु भोगों में आसक्त होकर नाना प्रकार के भोगों की प्राप्ति के लिये शौचाचार और सदाचार का त्याग कर देता है- ऐसे मनुष्य का वाचक यहाँ ‘अशुचिः’ पद है।
प्रश्न- ‘हर्षशोकान्वितः’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है?
उत्तर- प्रत्येक क्रिया में और उसके फल में राग-द्वेष रहने के कारण हरेक कर्म करते समय तथा हरेक घटना में जो कभी हर्षित होता है और कभी शोक करता है- इस प्रकार जिसके अन्तः-करण में हर्ष और शोक होते रहते हैं, ऐसे मनुष्य का वाचक यहाँ ‘हर्षशोकान्वितः’ पद है।
प्रश्न- वह कर्ता राजस कहा गया है- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जो मनुष्य उपर्युक्त समस्त भावों से या उनमें से कितने ही भावों से युक्त होकर क्रिया करने वाला है, वह ‘राजस कर्ता’ है। राजस कर्ता’ बार-बार नाना योनियों में जन्मता और मरता रहता है, वह संसार चक्र से मुक्त नहीं होता। इसलिये मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को ‘राजस कर्ता’ नहीं बनना चाहिये।
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