श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
प्रश्न- ‘सिद्धयसिद्धयोः निर्विकारः’ यह विशेषण कैसे मनुष्य का वाचक है? उत्तर- साधारण मनुष्यों की जिस कर्म में आसक्ति होती है और जिस कर्म को वे अपने इष्ट फल का साधन समझते हैं, उसके पूर्ण हो जाने से उनके मन में बड़ा भारी हर्ष होता है और किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित होकर उसके अधूरा रह जाने पर उनको बड़ा भारी कष्ट होता है; इसी तरह उनके अन्तःकरण में कर्म की सिद्धि-असिद्धि के सम्बन्ध से और भी बहुत प्रकार के विकार होते हैं। अतः अहंता, ममता, आसक्ति और फलेच्छा न रहने के कारण जो मनुष्य न तो किसी भी कर्म के पूर्ण होने में हर्षित होता है और न उसमें विघ्न उपस्थित होने पर शोक ही करता है; तथा इसी तरह जिसमें अन्य किसी प्रकार का भी कोई विकार नहीं होता, जो हरेक अवस्था में सदा-सर्वदा सम रहता है- ऐसे समतायुक्त पुरुष का वाचक ‘सिद्धयसिद्धयोः निर्विकारः’ यह विशेषण है। प्रश्न- वह कर्ता सात्त्विक कहा जाता है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जिस कर्ता में उपर्युक्त समस्त भावों का समावेश है, वही पूर्ण सात्त्विक है और जिसमें जिस भाव की कमी है, उतनी ही उसकी सात्त्विकता में कमी है। इस प्रकार का सात्त्विक भाव परमात्मा के तत्त्व-ज्ञान को प्रकट करने वाला है, इसलिये मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को सात्त्विक कर्ता ही बनना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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