श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
उत्तर- किसी भी कर्म का आरम्भ करने से पहले अपनी बुद्धि से विचार करके जो यह सोच लेना है कि अमुक कर्म करने से उसका भावी परिणाम अमुक प्रकार से सुख की प्राप्ति या अमुक प्रकार से दुःख की प्राप्ति होगा, यह उसके अनुबन्ध का यानी परिणाम का विचार करना है। तथा जो यह सोचना है कि अमुक कर्म में इतना धन व्यय करना पड़ेगा, इतने बल का प्रयोग करना पड़ेगा, इतना समय लगेगा, अमुक अंश में धर्म की हानि होगी और अमुक-अमुक प्रकार की दूसरी हानियाँ होंगी- यह क्षय का यानी हानी का विचार करना है। और जो यह सोचना है कि अमुक कर्म के करने से अमुक मनुष्यों को या अन्य प्राणियों को अमुक प्रकार से इतना कष्ट पहँचेगा, अमुक मनुष्यों का या अन्य प्राणियों का जीवन नष्ट होगा- यह हिंसा का विचार करना है। इसी तरह जो यह सोचना है कि अमुक कर्म करने के लिये इतने सामर्थ्य की आवश्यकता है, अतः इसे पूरा करने की सामर्थ्य हममें है या नहीं- यह पौरुष का यानी सामर्थ्य का विचार करना है। इस तरह परिणाम, हानि, हिंसा और पौरुष- इन चारों का या चारों में से किसी एक का विचार किये बिना ही ‘जो कुछ होगा सो देखा जायगा’ इस प्रकार दुःसाहस करके जो अज्ञता से किसी कर्म का आरम्भ कर देना है- यही परिणाम, हानि, हिंसा और पौरुष का विचार न करके केवल मोह से कर्म का आरम्भ करना है। प्रश्न- वह कर्म तामस कहा जाता है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार बिना सोचे-समझे जिस कर्म का आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तमोगुण के कार्य मोह से आरम्भ किया हुआ होने के कारण तामस कहा जाता है। तामस कर्म का फल अज्ञान यानी शूकर, कूकर, वृक्ष आदि ज्ञानरहित योनियों की प्राप्ति या नरकों की प्राप्ति बतलाया गया है[1]; अतः कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को कभी ऐसा कर्म नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 14। 18
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज