श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से आत्मा को कर्ता समझाने वाले मनुष्य की बुद्धि दूषित है, उसमें आत्मस्वरूप को यथार्थ समझने की शक्ति नहीं है- यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ ‘दुर्मतिः’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। तथा वह यथार्थ नहीं जानता- इस कथन से यह भाव दिखलाया है कि जो तेरहवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक के कथनानुसार समस्त कर्मों को प्रकृति का ही खेल समझता है और आत्मा को सर्वथा आकर्ता समझता है, वही यथार्थ समझता है; उससे विपरीत आत्मा को कर्ता समझने वाला मनुष्य अज्ञान और अहंकार से मोहित है[1], इसलिये उसका समझना ठीक नहीं है-गलत है। प्रश्न- चौदहवें श्लोक में कर्मों के बनने में जो पाँच हेतु बतलाये गये हैं- उसमें अधिष्ठानादि चार हेतु तो प्रकृतिजनित ही हैं, परन्तु ‘कर्ता’ रूप् पाँचवा हेतु प्रकृतिस्थ’ पुरुष को माना गया है; और यहाँ यह बात कही जाति है कि आत्मा कर्ता नहीं है, संगरहित है। इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस विषय में यह समझना चाहिये कि वास्तव में आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध, निर्विकार और सर्वथा असंग है; प्रकृति से, प्रकृतिजनित पदार्थों से या कमर्मं से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। किन्तु अनादिसिद्धि अविद्या के कारण असंग आत्मा का ही इस प्रकृति के साथ सम्बन्ध-सा हो रहा है; अतः वह प्रकृति द्वारा सम्पादित क्रियाओं में मिथ्या अभिमान करके स्वयं उन कर्मों का कर्ता बन जाता है। इस प्रकार कर्ता बने हुए पुरुष का नाम ही ‘प्रकृतिस्थ’ पुरुष है; वह उन प्रकृति द्वारा सम्पन्न हुई क्रियाओं का कर्ता बनता है, तभी उनकी ‘कर्म’ संज्ञा होती है और वे कर्म फल देने वाले बन जाते हैं। इसीलिये उस प्रकृतिरूथ पुरुष को अच्छी-बुरी योनियों में जन्म धारण करके उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है।[2] इसलिये चौदहवें श्लोक में कर्मों की सिद्धि के पाँच हेतुओं में एक हेतु जो ‘कर्ता’ माना गया है, वह प्रकृति में स्थित पुरुष है और यहाँ आत्मा के केवल यानि संगरहित, शुद्ध स्वरूप का वर्णन है, अतः उसको अकर्ता बतलाकर उसके यथार्थ स्वरूप का लक्षण किया गया है। जो आत्मा के यथार्थ रूप को समझ लेता है, उसके कर्मों में ‘कर्ता’ रूप पाँचवाँ हेतु नहीं रहता। इसी करण उसके कर्मों की कर्म संज्ञा नहीं रहती। यही बात अगले श्लोक में समझायी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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