श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य: ।
उत्तर- ‘एवम्’ के सहित ‘सति’ पद का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि समस्त कर्मों के होने में उपर्युक्त अधिष्ठानादि ही कारण हैं, आत्मा का उन कर्मों से वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; इसलिये आत्मा को कर्ता मानना किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। तो भी लोग मूर्खतावश अपने को कर्मों का कर्ता तान लेते हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है! प्रश्न- ‘अकृतबुद्धित्वात्’ का क्या भाव है? उत्तर- सत्संग और सत्-शास्त्रों के अभ्यास द्वारा तथा विवेक, विचार और शमादमादि आध्यात्मिक साधनों द्वारा जिसकी बुद्धि शुद्ध की हुई नहीं है- ऐसे प्राकृत आज्ञानी मनुष्य को ‘अकृतबुद्धि’ कहते हैं। अतः यहाँ ‘अकृतबुद्धित्वात्’ पद का प्रयोग करके आत्मा को कर्ता मानने का हेतु बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि वास्तव में आत्मा का कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध न होने पर भी बुद्धि में विवेक-शक्ति न रहने के कारण आज्ञानवश मनुष्य आत्मा को कर्ता मान बैठता है। प्रश्न- ‘आत्मानम्’ पद के साथ ‘केवलम्’ विशेषण के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- ‘केवलम्’ विशेषण के प्रयोग से आत्मा के यथार्थ स्वरूप का लक्षण किया गया है अभिप्राय यह है कि आत्मा का यथार्थ स्वरूप ‘केवल’ यानी सर्वथ शुद्ध; निर्विकार और असंग है। श्रुतियों में भी कहा है कि ‘असङो ह्ययं पुरुषः’[1] ‘यह आत्मा वास्तव में सर्वथा असंग है।’ अतः असंग आत्मा का कर्मों के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसे कर्मों का कर्ता मानना अत्यन्त विपरीत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बृहदारण्यक-उ. 4।3।15-16
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