श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर: ।
उत्तर- ‘नरः’ पद यहाँ मनुष्य का वाचक है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि मनुष्य शरीर में ही जीव पुण्य और पापरूप नवीन कर्म कर सकता है। अन्य सब भोगयोनियाँ हैं; उसमें पूर्वकृत कर्मों का फल भोगा जाता है, नवीन कर्म करने का अधिकार नहीं है। प्रश्न- ‘शरीरवाङ्मनोभिः’ पद में ‘शरीर’ शब्द से किसका, ‘वाक्’ से किसका और ‘मनस्’ से किसका ग्रहण होता है? तथा यहाँ इस पद के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- उपर्युक्त पद में ‘शरीर’ शब्द से वाणी के सिवा समस्त इन्द्रियों के सहित स्थूल शरीर को लेना चाहिये ‘वाक्’ शब्द का अर्थ वाणी समझना चाहिये और ‘मनस्’ शब्द से समस्त अन्तः करण को लेना चाहिये। मनुष्य जितने भी पुण्य-पापरूप कर्म करता है उन सबको शास्त्रकारों ने कायिक वाचिक और मानसिक- इस प्रकार तीन भेदों में विभक्त किया है। अतः यहाँ इस पद का प्रयोग करके समस्त शुभाशुभ कर्मों का समाहार किया गया है। प्रश्न- ‘न्याय्यम्’ पद किस कर्म का वाचक है? उत्तर- वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के भेद से जिसके लिये जो कर्म कर्तव्य माने गये हैं- उन न्यायपूर्वक किये जाने वाले यज्ञ, दान, तप, विद्याध्ययन, युद्ध, कृषि, गोरक्षा, व्यापार, सेवा आदि सतस्त शास्त्रविहित कर्मों के समुदाय का वाचक यहाँ ‘न्याय्यम्’ पद है। प्रश्न- ‘विपरीतम्’ पद किस कर्म का वाचक है? उत्तर- वर्ण, आश्रम, प्रकृति और परिस्थिति के भेद से जिसके लिये जिन कर्मों के करने का शास्त्रों में निषेध किया गया है तथा जो कर्म, नीति और धर्म के प्रतिकूल हैं- ऐसे असत्य-भाषण, चोरी, व्यभिचार, हिंसा, मद्यपान, अभक्ष्य-भक्षण, आदि समस्त पापकर्मों का वाचक यहाँ ‘विपरीतम्’ पद है। प्रश्न- ‘यत्’ पद के सहित ‘कर्म’ पद किसका वाचक है और उसके ये पाँचों कारण हैं- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘यत्’ पद के सहित ‘कर्म’ पद यहाँ मन, वाणी और शरीर द्वारा किये जाने वाले जितने भी पुण्य और पापरूप कर्म हैं- जिनका इस जन्म तथा जन्मान्तर में जीव को फल भोगना पड़ता है- उन सतस्त कर्मों का वाचक है। तथा ‘उसके ये पाँचों कारण हैं’- इस वाक्य से यह भाव दिखलाया है कि इन पाँचों के संयोग बिना कोई भी कर्म नहीं बन सकता; जितने भी शुभाशुभ कर्म होते हैं, इन पाँचों के संयोग से ही होते हैं। इनमें से किसी एक के न रहने से कर्म नहीं बन सकता। इसीलिये बिना कर्तापन के किया जाने वाला कर्म वास्तव में कर्म नहीं है, यह बात सत्रहवें श्लोक में कही गई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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