श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
उत्तर- वर्तमान जन्म में मनुष्य प्रायः पूर्वकृत कर्मों से बने हुए प्रारब्ध का ही भोग करता है नवीन कर्मों का फल वर्तमान जन्म में बहुत ही कम भोगा जाता है; इसलिये एक मनुष्य योनि में किये हुए कर्मों का फल अनेक योनियों में अवश्य भोगना पड़ता है- यह भाव समझाने के लिये यहाँ ‘प्रेत्य’ पद का प्रयोग करके मरने के बाद फल भोगने की बात कही गई है। प्रश्न- ‘तु’ अव्यय का क्या भाव है? उत्तर- कर्मफल का त्याग न करने वालों की अपेक्षा कर्मफल का त्याग करने वाले पुरुषों की अत्यन्त श्रेष्ठता और विलक्षणता प्रकट करने के लिये यहाँ ‘तु’ अव्यय का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘संन्यासिनाम्’ पद किन मनुष्यों का वाचक है और उनके कर्मों का फल कभी नहीं होता, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का जिन्होंने सर्वथा त्याग कर दिया है; दसवें श्लोक में त्यागी के नाम से जिनके लक्षण बतलाये गये हैं; छठे अध्याय के पहले श्लोक में जिनके लिये ‘संन्यासी’ और ‘योगी’ दोनों पदों का प्रयोग किया गया है तथा दूसरे अध्याय के इक्यावनवें श्लोक में जिनको अनामय पद की प्राप्ति का होना बतलाया गया है- ऐसे कर्मयोगियों का वाचक यहाँ ‘संन्यासिनाम्’ पद है। अतः संन्यासियों के कर्मों का फल कभी नहीं होता- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार कर्मफल का त्याग कर देने वाले त्यागी मनुष्य जितने कर्म करते हैं वे भूने हुए बीज की भाँति होते हैं, उनमें फल उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती; तथा इस प्रकार यज्ञार्थ किये जाने वाले निष्काम कर्मों से पूर्वसंचित समस्त सुभासुभ कर्मों का भी नाश हो जाता है।[1] इस कारण उनके इस जन्म में या जन्मान्तरों में किये हुए किसी भी कर्म का किसी प्रकार का भी फल किसी अवस्था में, जीते हुए या मरने के बाद कभी नहीं होता; वे कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4।23
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज