श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में यह बात कही गई कि ‘जो कर्मफल कात्यागी है, वही त्यागी है।’ इस पर यह शंका हो सकती है कि कर्मों का फल न चाहने पर भी किये हुए कर्म अपना फल दिये बिना नष्ट नहीं हो सकते- जैसे बोया हुआ बीज समयपर अपने-आप वृक्ष को उत्पन्न कर देता है, वैसे ही किये हुए कर्मों का फल भी किसी-न-किसी जन्म में सबको अवश्य भोगना पड़ता है; इसलिये केवल कर्मफल के त्याग से मनुष्य त्यागी यानी ‘कर्मबन्धन से रहित’ कैसे हो सकता है? इस शंका की निवृत्ति के लिये कहते हैं- अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् ।
उत्तर- जिन्होंने अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना कात्याग नहीं किया है; जो आसक्ति और फलेच्छापूर्वक सब प्रकार के कर्म करने वाले हैं- ऐसे सर्वसाधारण प्राकृत मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘अत्यागिनाम्’ पद है। उनके द्वारा किये हुए शुभ कर्मों का जो स्वर्गादि की प्राप्ति या अन्य किसी प्रकार के सांसारिक इष्ट भोगों की प्राप्तिरूप् फल है, वह अच्छा फल है; तथा उनके द्वारा किये हुए पाप-कर्मों का जो पशु, पक्षी, कीट, पतंग और वृक्ष आदि तिर्यक्-योनियों की प्राप्ति या नरकों की प्राप्ति अथवा अन्य किसी प्रकार के दुःखों की प्राप्ति रूप् फल है- वह बुरा फल है। इसी प्रकार जो मनुष्यादि योनियों में उत्पन्न होकर कभी इष्ट भोगों को प्राप्त होना और कभी अनिष्ट भोगों को प्राप्त होना है, वह मिश्रित फल है। यही उनके कर्मों के तीन प्रकार का फल है। यह तीन प्रकार का फल उन लोगों को मरने के बाद अवश्य प्राप्त होता है- इस कथन से यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि उन पुरुषों के कर्म अपना फल भुगताये बिना नष्ट नहीं हो सकते, जन्म-जन्मन्तरों में शुभाशुभ फल देते रहते हैं, इसीलिये ऐसे मनुष्य संसार चक्र में घूमते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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