द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार कर्मयोग का महत्त्व बतलाकर अब उसके आचरण की विघि बतलाने के लिये पहले उस कर्मयोग में परम आवश्यक जो सिद्ध कर्मयोगी की निश्चयात्मिका स्थायी समबुद्धि है, उसका और कर्मयोग में बाधक जो सकाम मनुष्यों की भिन्न-भिन्न बुद्धियाँ हैं, उनका भेद बतलाते हैं-
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्रानन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।। 41 ।।
हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती अहि; किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं।
प्रश्न- ‘व्यवसायात्मिका’ विशेषण के सहित ‘बुद्धिः’ पद यहाँ किस बुद्धि का वाचक है और वह एक ही है- इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- अटल और स्थिर निश्चय ही जिस बुद्धि का स्वरूप है, उनतालीसवें श्लोक में जिस बुद्धि से युक्त होने का फल कर्मबन्धन से मुक्त होना बतलाया है, उस स्थायी समभावरूप निश्चयात्मिका बुद्धि का वाचक यहाँ ‘व्यवसायात्मिका’ विशेषण के सहित ‘बुद्धिः’ पद है; क्योंकि इस प्रकरण में जगह-जगह इसी अर्थ में ‘बुद्धि’ शब्द का प्रयोग हुआ है तथा ‘वह बुद्धि एक ही है’ यह कहकर यह भाव दिखलाया गया है कि इसमें केवलमात्र एक सच्चिदानन्द परमात्मा का ही निश्चय रहता है। नाना भोग और उनकी प्राप्ति के उपायों को इसके निश्चय में स्थान नहीं मिलता। इसी को स्थिरबुद्धि और समबुद्धि भी कहते हैं।
प्रश्न- ‘अव्यवसायिनाम्’ पद कैसे मनुष्यों का वाचक है और उनकी बुद्धियों को बहुत भेदों वाली और अनन्त बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- जिनमें उपर्युक्त निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं है, अज्ञानजनित विषमभाव के कारण जिनका अन्तःकरण मोहित हो रहा है, उन विवेकहीन भोगासक्त मनुष्यों का वाचक ‘अव्यवसायिनाम्’ पद है। उनकी बुद्धियों को बहुत भेदों वाली और अनन्त बतलाकर यह दिखलाया गया है कि सकामभाव से यज्ञादि कर्म करने वाले मनुष्यों के भिन्न-भिन्न उद्देश्य रहते हैं; कोई एक किसी भोग की प्राप्ति के लिये किसी प्रकार का कर्म करता है, तो दूसरा उससे भिन्न कहीं दूसरे ही भोगों की प्राप्ति के लिये दूसरे ही प्रकार का कर्म करता है। इसके सिवा वे किसी एक उद्देश्य से किये जाने वाले कर्म में भी अनेक प्रकार के भोगों की कामना किया करते हैं और संसार के समस्त पदार्थों में और घटनाओं में उनका विषमभाव रहता है। किसी को प्रिय समझते हैं, किसी को अप्रिय समझते हैं। एक ही पदार्थ को किसी अंश में प्रिय समझते हैं और किसी अंश में अप्रिय समझते हैं। इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थों में, व्यक्तियों में और घटनाओं में उनकी अनेक प्रकार से विषमबुद्धि रहती है और उसके अनन्त भेद होते हैं।
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