श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत: ।
उत्तर- जिनके द्वारा देह का धारण-पोषण किया जाता है, ऐसे समस्त मनुष्य समुदाय का वाचक यहाँ ‘देहभृता’ पद है। अतः शरीरधारी किसी भी मनुष्य के लिये सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग कर देना शक्य नहीं है, इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि कोई भी देहधारी मनुष्य बिना कर्म किये रह नहीं सकता[1]; क्योंकि बिना कर्म किये शरीर का निर्वाह ही नहीं हो सकता।[2] इसलिये मनुष्य किसी भी आश्रम में क्यों न रहता हो- जब तक वह जीवित रहेगा तब तक उसे अपनी परिस्थिति के अनुसार खना-पीना, सोना-बैठना, चलना-फिरना और बोलना आदि कुछ-न-कुछ कर्म तो करना ही पड़ेगा। अतएव सम्पूर्णता से सब कर्मों का स्वरूप से त्याग किया जाना सम्भव नहीं है। प्रश्न- ‘कर्मफलत्यागी’ पद किस मनुष्य का वाचक है और जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- कर्म और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का त्याग करके शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करने वाले कर्मयोगी का वाचक यहाँ ‘कर्मफलत्यागी’ पद है। अतः जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है- इस कथन से यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि मनुष्य तात्र को कुछ-न-कुछ करने ही पड़ते हैं, बिना कर्म किये कोई रह ही नहीं सकता इसलिये जो निषिद्ध और काम्य कर्मों का सर्वथा त्याग करके यथावश्यक शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों का अनुष्ठान करता रहता है तथा उन कर्मों में और उनके फल में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देता है- वही सच्चा त्यागी है। ऊपर से इन्द्रियों की क्रियाओं का संयम करके मन से विषयों का चिन्तन करने वाला मनुष्य त्यागी नहीं है तथा अहंता, ममता और आसक्ति के रहते हुए शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि कर्तव्य कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देने वाला भी त्यागी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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