श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
उत्तर- ‘अकुशलम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद यहाँ शास्त्र द्वारा निषेध किये हुए पाप कर्मों का और काम्य कर्मों का वाचक है; क्योंकि पाप कर्म तो मनुष्य को नाना प्रकार की नीच योनियों में और नरक में गिराने वाले हैं एवं काम्य कर्म भी फल भोग के लिये पुनर्जन्म देने वाले है। इस प्रकार दोनों ही बन्धन के हेतु होने से अकुशल कहलाते हैं। सात्त्विक त्यागी उनसे द्वेष नहीं करता- इस कथन का यहाँ यह भाव है कि सात्त्विक त्यागी में राग-द्वेष का सर्वथा आभाव हो जाने के कारण वह जो निषिद्ध और काम्य कर्मों का त्याग करता है, वह द्वेष बुद्धि से नहीं करता; किन्तु अकुशल कर्मों का त्याग करना मनुष्य का कर्तव्य है, इस भाव से लोकसंग्रह के लिये उनका त्याग करता है। प्रश्न- ‘कुशले’ पद किन कर्मों का वाचक है और सात्त्वक त्यागी उनमें आसक्त नहीं होता, इस कन का क्या भाव है? उत्तर- ‘कुशले’ पद यहाँ शास्त्रविहित नित्य-नैमित्तिक यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों का और वर्णाश्रमानुकूल समस्त कर्तव्य कर्मों का वाचक है। निष्कामभाव से किये हुए उपर्युक्त कर्म मनुष्य के पूर्वकृत संचित पापों का नाश करके उसे कर्म बन्धन से छुड़ा देने में समर्थ है, इसलिये ये कुशल कहलाते हैं। सात्त्विक त्यागी उन कुशल कर्मों में आसक्त नहीं होता- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि वह जो उपर्युक्त शुभ कर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करता है, वह आसक्तिपूर्वक नहीं करता; किन्तु शास्त्रविहित कर्मों का करना मनुष्य का कर्तव्य है- इस भाव से ममता, आसक्ति और फलेच्छा छोड़कर लोक-संग्रह के लिये उनका अनुष्ठान करता है। प्रश्न- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि इस प्रकार राग-द्वेष से रहित होकर केवल कर्तव्य-बुद्धि से कर्मों का ग्रहण और त्याग करने वाला शुद्ध सत्त्व-गुण से युक्त पुरुष संशयरहित है,यानि उसने भली-भाँति निश्चय कर लिया है कि यह कर्मयोग रूप सात्त्विक त्याग ही कर्मबन्धन से छूटकर परमपद को प्राप्त कर लेने का पूर्ण साधन है। इसीलिये वह बुद्धिमान् है और वही सच्चा त्यागी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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