श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय सम्बन्ध- अब उत्तम श्रेणी के सात्त्विक त्याग के लक्षण बतलाये जाते हैं। कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।
उत्तर- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो-जो कर्म शास्त्र में अवश्यकर्तव्य बतलाये गये हैं- जिनकी व्याख्या छठे श्लोक में की गई है- उन समस्त कर्मों का वाचक यहाँ ‘नियतम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है; अतः इससे यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि निषिद्ध और काम्य कर्म नियत कर्मों में नहीं है। उपर्युक्त नियत कर्म मनुष्य को अवश्य करने चाहिये, इनको न करना भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करना है- इस भाव से भावित होकर उन कर्मों में और उनके फलरूप इस लोक और परलोक के समस्त भागों में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग करके उत्साहपूर्वक विधिवत् उनको करते रहना-यही उनको कर्तव्य समझकर आसक्ति और फल का त्याग करके करना है। प्रश्न- इस प्रकार के कर्मानुष्ठान को सात्त्विक त्याग कहने का क्या अभिप्राय है? क्योंकि यह तो कर्मों का त्याग नहीं है, बल्कि कर्मों का करना है? उत्तर- इस कर्मानुष्ठानरूप कर्मयोग को सात्त्विक त्याग कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि शास्त्रविहित अवश्य कर्तव्य कर्मों का स्वरूप से त्याग न करके उनमें और उनके फलस्वरूप सम्पूर्ण पदार्थों में आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना ही मेरे मत से सच्चा त्याग है; कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के भोगों से आसक्ति और कमना का त्याग न करके किसी भी भाव से प्रेरित होकर विहित कर्मों का स्वरूप से त्याग कर बैठना सच्चा त्याग नहीं है। क्योंकि त्याग का परिणाम कर्मों से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होना चाहिये; और यह परिणाम ममता, आसक्ति और कामना के त्याग से ही हो सकता है- केवल स्वरूप से कर्मों का त्याग करने से नहीं। अतएव कर्मों से आसक्ति और फलेच्छा का त्याग ही सात्त्विक त्याग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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