श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च ।
उत्तर- ‘एतानि’ पद यहाँ उपर्युक्त यज्ञ, दान और तपरूप् कर्मों का वाचक है। उसके साथ ‘तु’ और ‘अपि’- इन दोनों अव्यय पदों का प्रयोग करके उनके सिवा माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, वर्णाश्रमानुसार जीविका-निर्वाह के कर्म और शरीर-सम्बन्धी खानपान आदि जितने भी शास्त्र-विहित कर्तव्य कर्म हैं- उन सबका समाहार किया गया है। प्रश्न- इन सब कर्मों को आसक्ति और फल का त्याग करके करना चाहिये, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान, उनमें ममता और असक्ति का सर्वर्था त्याग करके तथा उनसे प्राप्त होने वाले इस लोक और परलोक के भोगरूप फल में भी आसक्ति और कामना का सर्वर्था त्याग करके करना चाहिये। इससे यह भाव भी समझ लेना चाहिये कि मुमुक्षु पुरुष को काम्य कर्म और निषिद्ध कर्मों का आचरण नहीं करना चाहिये। प्रश्न- यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है- इस कथन का क्या भाव है तथा पहले जो विद्वानों के मत बतलाये थे, उनकी अपेक्षा भगवान् के मत में क्या विशेषता है? उत्तर- यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है- इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे मत से इसी का नाम त्याग है; क्योंकि इस प्रकार कर्म करने वाला मपुष्य समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त हो जाता है, कर्मों से उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। ऊपर विद्वानों के मतानुसार जो त्याग और संन्यास के लक्षण बतलाये गये हैं, वे पूर्ण नहीं हैं। क्योंकि केवल काम्य कर्मों का स्वरूप् से त्याग कर देने पर भी अन्य नित्य-नेमित्तिक कर्मों में और उनके फल में मनुष्य की ममता, आसक्ति और कामना रहने से वे बन्धन के हेतु बन जाते हैं। सब कर्मों के फल की इच्छा त्याग कर देने पर भी उन कर्मों में ममता और आसक्ति रह जाने पर वे बन्धन कारक हो सकते हैं। अहंता, ममता, आसक्ति और कामना त्याग किये बिना यदि समस्त कर्मों को दोषयुक्त समझकर कर्तव्य कर्मों का भी स्वरूप् से त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा करने से वह विहित कर्म के त्यागरूप प्रत्यवाय का भागी होता है। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को करते रहने पर भी यदि उसमें असक्ति और उनके फल की कामना का त्याग न किया जाय तो वे बन्धन के हेतु बन जाते हैं। इसलिये उन विद्वानों के बतलाये हुए लक्षणों वाले संन्यास और त्याग से मनुष्य कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। भगवान् के कथनानुसार समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फल का त्याग कर देना ही पूर्ण त्याग है। इसके करने से कर्मबन्धन का सर्वथा नाश हो जाता है; क्योंकि कर्म स्वरूपतः बन्धनकरक नहीं है; उनके साथ ममता, आसक्ति और फल का सम्बन्ध ही बन्धनकारक है। यही भगवान् के मत में विशेषता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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