श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
उत्तर- जो भरतवंशियों में अत्यन्त श्रेष्ठ हो, उसे ‘भरतसत्तम’ कहते हैं और जो पुरुषों में सिंह के समान वीर हो, उसे ‘पुरुषव्याघ्र’ कहते हैं। इन दोनो संबोधनों का प्रयोग करके भगवान यह भाव दिखला रहे हैं कि तुम भरतवंशियों में उत्तम और वीर पुरुष हो अतः आगे बतलाये जाने वाले तीन प्रकार के त्यागों में से तामस और राजस त्याग न करके सात्त्विक त्यागरूप् कर्मयोग का अनुष्ठान करने में समर्थ हो। प्रश्न- ‘तत्र’ शब्द का क्या अर्थ है और उसके प्रयोग का यहाँ क्या भाव है? उत्तर- ‘तत्र’ का अर्थ है उपर्युक्त दोनों विषयों में अर्थात् ‘त्याग ’ और ‘संन्यास’ में। इसके प्रयोग का यहाँ यह भाव है कि अर्जुन ने भगवान् से संन्यास और त्याग- इन दोनों का तत्त्व बतलाने के लिये प्रार्थना की थी, ‘उन दोनों में से’ यहाँ पहले भगवान् केवल त्याग का तत्त्व समझाना आरम्भ करते हैं। अर्जुन ने दोनों का तत्त्व अलग-अलग बतलाने के लिये कहा था और भगवान् ने उसका कोई प्रतिपाद न करके त्याग का ही विषय बतलाने का संकेत किया है; उससे यही बात मालूम होती है कि ‘संन्यास’ का प्रकरण भगवान् आगे कहेंगे। प्रश्न- त्याग के विषय में तू मेरा निश्चय सुन, उस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुमने जिन दो बातों को जानने की इच्छा प्रकट की थी, उनके विषय में अब तक मैंने दूसरों के मत बतलाये। अब में तुम्हे अपने मत के अनुसार उन दोनों में से त्याग का तत्त्व भली-भाँति बतलाना आरम्भ करता हूँ, अतः तुम सावधान होकर उसे सुनो। प्रश्न- त्याग[1] तीन प्रकार का बतलाया गया है इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् ने शास्त्रों को आदर देने के लिये अपने मत को शास्त्रसम्मत बतलाया है। अभिप्राय यह है कि शास्त्रों में त्याग के तीन भेद माने गये हैं, उनको में तुम्हें भली-भाँति बतलाऊँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से
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