श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
उत्तर- इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि आरम्भ (क्रिया) मात्र में ही कुछ-न-कुछ पाप का सम्बन्ध हो जाता है, अतः विहित कर्म भी सर्वथा निर्दोष नहीं है। इसी भाव को लेकर भगवान् ने भी आगे चलकर कहा है- ‘सर्वारम्भा हिदोषेन घूमेनाग्निवावृताः’[1] ‘आरम्भ किये जाने वाले सभी कर्म धूएँ से अग्नि के समान दोष से युक्त होते हैं।’ इसलिये कितने ही विद्वानों का कहना है कि कल्याण चाहने वाले मनुष्य को नित्य, नैमित्तिक और काम्य आदि सभी कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना चाहिये अर्थात् संन्यास-आश्रम ग्रहण कर लेना चाहिये। प्रश्न- दूसरे विद्वान् यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने योग्य नहीं है- इस वाक्य का क्या तात्पर्य है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि बहुत-से विद्वानों के मत में यज्ञ, दान और तपरूप कर्म वास्तव में दोषयुक्त नहीं हैं। वे मानते हैं कि उन कर्मों के निमित्त किये जाने वाले आरम्भ में जिन अवश्यम्भावी हिंसादि पापों का होना देखा जाता है, वे वास्तव में पाप नहीं है; बल्कि शास्त्रों के द्वारा विहित होने के कारण यज्ञ, दान और तपरूप कर्म उलटे मनुष्य को पवित्र करने वाले हैं। इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्य को निसिद्ध कर्मों का त्याग करना चाहिये, शास्त्रविहित कर्तव्य- कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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