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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ129 श्रीराधा एवं अन्य ब्रज-ललनाएँ मुग्ध हो गयी हैं ।जिनका वे चित्त में ध्यान किया करती थीं, वे हि ये अंन्तर्यामी वनमाली (सामने आ गये हैं) (इनके) चरणों में रत्नजटिल मनोहर खड़ाऊ और अत्यंत रसमय (ध्वनि करने वाले ) नूपुर हैं, जो ऐसे लगते हैं मानो चरण रूपी कमलदल के लोभी हंसशावक बैठे हों । दोनों जाँघे नीलमणि से बने केले के खंभे हैं, (जो) उलटी रीति से (उपर मोटे,नीचे पतले) सजाये गये हैं । श्रीनंद्कुमार कमर में कछनी और स्वर्णकिंणी पहने हैं । विशाल वक्ष:स्थल पर मोतियों की माला के बीच में कौस्तुभमणि अत्यंत शोभा दे रहा है, मानो निर्मल आकाश में तारागणों के बीच में चंद्रमा विराजमान हो। दोनों हाथों में लेकर वंशी को ओठपर रखे हैं तथा मोहित करने वाला राग बजा रहे है। उनके दांत चमक रहे है ; नासापुटों को मटकाते हुए तथा नेत्रों को झुकाये हुए ये मुख से गा रहे हैं । कुण्डलों की कांति कपोलों पर ऐसी पड़ रही है, मानो अमृत-सरोवर में (दो) मछलियाँ खेल रही हों। भौंहरूपी धनुषों को देखकर नेत्ररूपी खंजन मन में लजा जाते हैं , उड़ते नहीं। मस्तक पर किरीट-मुकुट शोभित है, इस रूपको देखकर ब्रज की स्त्रियोँ मुग्ध हो जाती हैं। सूरदासजी कहते हैं कि श्याम ऐसे शोभा निधान हैं, वे गोपियों के मन को मोह लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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