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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली115 ( गोपी कह रही है- ) सखी ! ( प्यारेके ) चञ्चल कुण्डलोंको देख ( जिनकी ) सुन्दर झलक कानोंमे पहिननेसे मनोहर कपोलोंपर पड रही है । मुखमण्डल अमृतका सरोवर है जिसे देखकर मन विमुख हो गया है; ( उस अमृत-सरोवरमे ) छिपते और प्रत्यक्ष होते ( मकराकृत कुण्डलरुप ) मगर रुपजलको हलोर दे-दे खेल रहे है । नेत्र मछलियौ है भौंहे नागिने है और नासिका बीचका स्थल है; ( वहाँ ) रसमय कस्तूरीके तिलककी शोभा कीचड लगी-जैसी सुशोभित हो रही है । मुख मानो प्रफुल्लित कमल है जिसपर व्रजयुवतियोंके नेत्ररुपी भौंरे लगे रहते है । बिखरी पडी अलके ऐसी लगती है मानो प्रेम-हिलोरोंकी तरंगे हो । श्यामसुन्दरके शरीरकी शोभाको कामदेवने अमृतपूर्ण सरोवर ( जैसा ) बनाया है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी शोभा देखकर व्रजकी तरुणियाँ अपनेको महान भाग्यशालिनी ( मानती ) है । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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