श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 128

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग रामकली

115
देखि री देखि कुंडल लोल।
चारु श्रवनन ग्रहन कीन्हे झलक ललित कपोल ॥1॥
बदन मंडल सुधा सरबर निरखि मन भयौ भोर।
मकर क्रीडत गुप्त परगट रुप जल झकझोर ॥2॥
नैन मीन भुवंगिनी भ्रुव नासिका थल बीच।
सरस मृगमद तिलक सोभा लसति है लगि कीच ॥3॥
मुख बिकास सरोज मानौ जुबति लोचन भृंग।
बिथुरि अलकैं परी मानौ प्रेम लहरि तरंग ॥4॥
स्याम तनु छबि अमृत पूरन रच्यौ काम तडाग ।
सूर प्रभु की निरखि सोभा ब्रज तरुनि बडभाग ॥5॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! ( प्यारेके ) चञ्चल कुण्डलोंको देख ( जिनकी ) सुन्दर झलक कानोंमे पहिननेसे मनोहर कपोलोंपर पड रही है । मुखमण्डल अमृतका सरोवर है जिसे देखकर मन विमुख हो गया है; ( उस अमृत-सरोवरमे ) छिपते और प्रत्यक्ष होते ( मकराकृत कुण्डलरुप ) मगर रुपजलको हलोर दे-दे खेल रहे है । नेत्र मछलियौ है भौंहे नागिने है और नासिका बीचका स्थल है; ( वहाँ ) रसमय कस्तूरीके तिलककी शोभा कीचड लगी-जैसी सुशोभित हो रही है । मुख मानो प्रफुल्लित कमल है जिसपर व्रजयुवतियोंके नेत्ररुपी भौंरे लगे रहते है । बिखरी पडी अलके ऐसी लगती है मानो प्रेम-हिलोरोंकी तरंगे हो । श्यामसुन्दरके शरीरकी शोभाको कामदेवने अमृतपूर्ण सरोवर ( जैसा ) बनाया है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामीकी शोभा देखकर व्रजकी तरुणियाँ अपनेको महान भाग्यशालिनी ( मानती ) है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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