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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
श्रीवृन्दावन की वही शोभा, गौरनील-कांति युक्त युगल सरकार की केवल अनंग-रंगमय उदार नवीन रस की वही अनुपम सुषमा-राशि एवं उसी प्रकार प्राण-प्रियतम युगलकिशोर के आराधन-रस से विवश हुईं दिव्य लावण्य रूप-शोभा-सम्पन्ना वही किशोरीगण यूथ-यूथ में दशोदिशाओं को प्रकाशित करती हुईं मेरे हृदय में स्फुरित हों।।77।।
अनन्त ब्रह्माण्ड-राशि सम्वलित मूल प्रकृति के परे अमृतमय आस्वादनीय भगवज्ज्योति जय युक्त हो रही है- उसके अन्तःस्थल में वैकुण्ठ है, उसके भी अतिगुप्त स्थान में काम बीजात्मक द्युतिशील आस्वादनीय श्रीवृन्दावन विराजमान है।।78।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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