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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पष्ठ शतकम्
वहाँ युगल किशोर अपने अंगों को परस्पर प्रणय के रसमय आवेश से पूर्ण करते हैं, दोनों हास्य करते-करते मनोज्ञ-कला-विलास में परस्पर आलिंगन करते हैं। बार-बार रसाल-रतिरण उत्साह में सज्जित होकर सहसा मंजुल कुंज-चबूतरे में प्रविष्ट होते हैं।।73।।
इस वृन्दावन की कुंज में सखीगण वेणी-चूड़ा एवं तिलक आदि रचना कर, गन्ध, तांबूल, माल्यादि अर्पण कर, दिव्य-दिव्य सूक्ष्म उज्ज्वल वस्त्रादि पहिना कर, दिव्य-दिव्य अन्न पानादि भोजन कराकर, सुन्दर संवीजन (पंखा) और मृदुपाद-सम्वाहन आदि के द्वारा श्रीराधा-मुरलीधर की सेवा करतीं हैं।।74।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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