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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
जो अपराधी होकर भी चित्त में श्रीराधापदपद्मों को धारण करते हुए श्रीवृन्दावन में वास करते हैं, उन बड़भागी भक्तगणों को मैं नमस्कार करता हूँ।।28।।
श्रीराधाजी की भ्रूभंगी मात्र से महा कमातुर श्रीकृष्ण, जिसकी बार बार प्रशंसा करते हैं, मैं उस श्रीवृन्दावनेश्वरी के दास्य-लास्य की अभिलाषा करता हूँ।।29।।
मधुर से सुमधुर केलिपरायण, श्रीवृन्दावन में उमडे़ हुए काम सुमद्र के श्रेष्ठ रस-सागर की उत्पत्ति करने वाले एवं प्रतिपद में ही शोभासिन्धु में मज्जनशील देहधारी कोई गौरश्याम युगल-किशोर हमारे हृदय में स्फुरित हों।।30।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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