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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
हे परमानन्द स्वरूप श्रीवृन्दावन! आपके अनेक मनोरस रूप समूह मुक्त और ब्रज-गोपीगणों पर्यन्त भगवतप्रिय भक्तों से सेवित हों, किंतु श्रीराधामुरलीमनोहर के महामाधुर्य की चरम सीमा को प्राप्त हुआ अतिरसमय जो अत्युत्कृष्टरूप है, उसकी स्मृति आने पर भी मैं कृतकृत्य हो जाता हूँ।।17।।
जहाँ आम वृक्षों की शाखाओं पर बैठे हुए पुंस्कोकिलाओं के समूह श्रीराधाकृष्ण-विषयक सुन्दर गान शिक्षा में संलग्न हुए उन्मत्त होकर अनेक आश्यर्चमय गान कर रहे हैं, एवं जिनकी नृत्य-कलाओं को देखकर मोरगण विचित्र नृत्य करते हैं, तथा शुक सारिका जिनके संलाप का अनुवाचन करते हैं, उस श्रीवृन्दावन का मैं ध्यान करता हूँ।।18।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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