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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
जो श्रीराधा जी, अपने यौवनयुक्त दिव्य तप्त स्वर्ण की भाँति सुन्दर कांति समूह के द्वारा, पुनः पुनः अनेक प्रकार की अति चमत्कारी मधुर कामभंगी तरंगों के द्वारा एवं श्रीश्यामसुन्दर के प्रेमविकार जनित गम्भीर पुलकावलि, गद्गद् वाणी तथा अश्रु कम्पादि के द्वारा स्वानन्दमय वनचारिणी सखीगण को विस्मित करती हुई श्रीवृन्दावन में विराजमान हैं, वही मेरी स्वामिनी हैं।।7।।
अत्यन्त महाश्चर्य मधुर स्फूर्ति प्राप्त लीला-रूप-सौन्दर्य-सुरत-वैदग्धलहरीयुक्त श्रीराधा ब्रज से श्रीवृन्दावन आती हैं- एवं श्रीराधाकृण्ड स्थलि की शत-शत गुण-शोभा एवं चमत्कारिता आदि का प्रकाश करती है, श्रीश्यामसुन्दर के सहित वह मेरे हृदय मे स्फुरित हों।।8।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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