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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
श्रीगोवर्धन गिरिराज के निकट मोहन महाज्योति-सिन्धु उत्थित हो रहा है; उसके सामने सब सच्चिदानन्दमय ज्योति-समूह बिन्दुवत् प्रतीत होते हैं, उसका एक कण सुधा-समुद्र के कोटि माधुर्य को भी हरण करता है; उसके भीतर श्रीवृन्दावन का महाशोभामय वनराज विराजमान है।।100।।
जिसके एक बिन्दु मे ही सर्वानन्द-रस भरा हुआ है- ऐसे एक महा आनन्द के समुद्र को प्रवाहित करने वाला, साक्षात् लक्ष्मीदेवी के भी हृदय एवं नेत्रों को आकर्षण करने वाले सौन्दर्य से मण्डित, एवं विशुद्धानन्द-रस के एकमात्र सार की सुचमत्कारी वर्षा करने वाला-सुगन्धि, उज्ज्वलता, स्वच्छता, कोमलता एवं माधुर्य के आधिक्य में सर्वाश्चर्यमयस यह श्रीवृन्दावन अद्भुत है।।101।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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