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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
श्रीराधा एवं उसके प्रिय श्रीश्यामसुन्दर के पादपद्मों के सेवारूप अति उत्कृष्ट रस-सागर में निमग्न होकर देह-अध्यास भूलकर कब मैं श्री वृन्दावन में निवास करूँगा? ।।93।।
श्रीवृन्दावन-वास करने के लिये कोटि अधर्म हो या कोटि कुकर्म हों-समस्त सहन करके मैं कोइ (अनिर्वचनी) स्वार्थ सम्पादन करूँगा।।94।।
अनन्त एवं ज्योतिपूर्ण आनन्द दोहन करने वाले, अनन्त भावों से उललासपूर्वक श्रीराधा-कृष्ण में अनुराग करने वाले एवं अनन्त ईश्वरों की विभूतियाँ जिनकी अंजलि में समाई हुई हैं- ऐसे श्रीवृन्दावन के समस्त प्राणियों को नित्य नमस्कार करता हूँ।।95।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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