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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
यदि श्रीहरि-चरण के प्रमानन्दराशि से पूर्ण श्रीराधा पदरसाभिषिक्त वनराज श्रीवृन्दावन ही विडम्बना (तिरस्कार) करे, तो फिर और क्या कहा जाये?।।85।।
अहो! करोड़ों जन्मों के पश्चात भी मुझे एक ऐसा शरीर प्राप्त हो, जिसमें मैं श्रीवृन्दावन-वासियों की एकमात्र उच्छिष्ट (झूंठन) ही के लिये स्पृहायुक्त हो सकूँ।।86।।
हरि! हरि!! मुझे धिक्कार है!!! क्योंकि अति तुच्छ एवं अपना स्वार्थ (अभीष्ट) विनाश करने वाले लोक-धार्मों में अति-आसक्त होकर मैं श्रीवृन्दावन वास को भी नष्ट कर रहा हूँ।।87।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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