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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
जिसकी इस अति अद्भुत एवं ईश्वर को भी मोहित करने वाले रसमय श्रीवृन्दावन में सर्वस्व-बुद्धि (श्रीवृन्दावन की मेरी सर्वस्व है- ऐसी निष्ठा) नहीं हो सकी तो- उसके विद्या, कुल, शील, रूप एवं सम्पत्ति आदि कों का क्या प्रयोजन? उसके दान यज्ञादिक का क्या लाभ? बहुत यश-कीर्त्ति-प्राप्ति का क्या फल? उग्र तपस्या किंवा संन्यास, योगादि का क्या प्रयोजन? यदि उसने तत्त्व का अनुभव भी कर लिया तो क्या? और विष्णु-भजन से ही उसे क्या फल प्राप्त होगा?।।79।।
हे श्रीवृन्दावन! मैं धन्य हूँ! आपके अति महाप्रेम का पात्र हुआ हूँ!! क्योंकि ब्रह्मा, शुकदेव, सनकादि भी जिसके लिये प्रार्थना करते हैं- वह अपना स्थान मुझे (वास करने के लिए) दिया है एवं नित्यकैशौर वेश से भूषित तथा नित्य एममात्र काम-रंग-परायण गौरश्याम महामोहन श्रीयुगल-किशोर की सेवा की करने की आशा भी मुझे प्रदान की है।।80।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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