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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
काम के वशीभूत स्वर्ण चम्पक एवं नीलकमलवत् द्युति वाले, मधुर श्रीवृन्दावन में विराजमान नवीन श्रीयुगलकिशोर को स्मरण कर, जिनके नेत्र, वाक्य एवं देह-विलासादि के चमत्कारी महा-माधुर्य समूह में धन्य सखीगण भी मूर्च्छित हो जाती हैं।।75।।
जड़, मलिन, महादुःखसार, समस्त सत्-रज-तमोगुणमय समुद्र के पर जाकर एवं ज्योतिर्मय महासमुद्र को भी महासमुद्र को भी उल्लंघन करके श्रीभगवत्-धामों का दर्शन कर अहो! वहाँ के सुख को आस्वादन करते करते श्रीवृन्दावन नामक सब से ऊँचे धाम में प्रवेश कर एवं श्रीराधिका जी की रसमयी कंजवाटी का अन्वेषण कर ।।76।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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