विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
श्रीराधा-मुरलीमनोहर के चरणविलास से धन्य हुई इस श्रीवृन्दावन भूमि में यदि किंचिन्मात्र भी प्रीति हो तो मैं उसे ही परम पुरुषार्थ मानता हूँ।।65।।
वे श्रीयुगलकिशोर अति कौतुकवश श्रीवृन्दावन में घूम रहे हैं- महाश्चर्य कर्णरसायन अति मधुर परस्पर सुन्दर वाणी बोलते हैं, एक दूसरे को अधिक रमणीय वस्तु की सुचमत्कारता दिखाते हैं एवं ‘‘देखो’’! ‘‘देखो!!’’ ‘‘सुनो!’’ ‘‘सुनो!!’’ इस प्रकार प्रीतिपूर्वक कहते हैं- मैं श्रीराधाकृष्ण के इस स्वरूप का ध्यान करता हूँ ।।66।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज