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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
समस्त गुणों की खान श्रीवृन्दावन नामक इस परम (श्रेष्ठ) वन में श्रीराधापति के रतिरंचित निकुंज भवन में प्रीति स्थापन कर।।59।।
हे वृन्दावन्! यदि तुम्हारे वन में तृण बन कर भी रह सकूँ, तो हाथ पै रखी सुललित वैकुण्ठलक्ष्मी को भी मैं आँख उठाकर नहीं देखूँ।।60।।
श्रीवृन्दावन में मेरी घोरतर दुःख-दशा भले हो जाय, फिर भी अन्यत्र प्राकृत समस्त ऐश्वर्यो को मैं नहीं चाहता ।।61।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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