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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
जो लीलाक्रम से वस्त्र खींचने वाले अतीव रस-चंचल प्रियतम को देखकर लज्जायुक्त मुसकाती हुईं उसे (वस्त्र को बार बार बचस्थल पर धारण करती (जोडती) हैं, प्रतिपद में नवीन रंग की आनन्दमय मुन्दमुसकानरूप तरंग में जिनका मुखचन्द्र प्रफुल्लित होता है एवं जो उल्लास में आकर पुलकित हो रही हैं- ।।44।।
हास्या सहित सखीगण जिनको कुछ कुछ (अनिर्वचनीय) कहती हैं एवं जो नेत्रों से कोई कोई चांचल्य प्रकाश करती हैं, जिनकी देह लता (रस में, भाव में) कुछ कुछ झूमती हैं- ऐसी श्रीराधाजी की कब मैं सम्यक् प्रकार से मन में कुछ कुछ भी आराधना कर सकूँगा? ।।45।।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इति कुलक
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