विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
वह किशोरावस्था के आरम्भकाल में ही कोमल अंगों की गठनादि के माधुर्य से विस्मयजनक स्निग्ध-स्वर्ण सुगौर-सुन्दर कान्तिमय प्रेम-तरंगों के द्वारा सब दिशाओं को पूर्ण कर रही है, सम्पूर्ण अति-विशुद्ध मत्तताकारी महा आस्वादन योग्य श्रृंगार स्वरूप के द्वारा पशु-पक्षी, वृक्षों-लतादिकों को भी बार-बार मोहित करती हैं।।5।।
लक्ष्मी, गौरी आदि समस्त दिव्य नारीगणों का रूप जिनके महारूप सागर के एक बिन्दु के समान है वह उसी रूप-सागर के कोटि-कोटि गुणाधिक सुचमत्कारजनक अंगसोन्दर्य को धारण कर रही हैं। वह अनेक दिव्य दिव्य विचित्र कामकलाचातुरी की सीमा हैं, एवं श्यामसुन्दर के प्रेम-रस में बार बार रोमांचित हो रही हैं।।6।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज