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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
इसी रूप की श्री राधारस सुधानिधि का ‘आस्वादनी-टीका; सहित प्रकाशन श्री प्रमोद गोपाल भक्ति शास्त्री द्वारा भी कराया गया है तथा श्री पुरी गोस्वामिपाद द्वारा सम्पादित भी यह छापी जा चुकी है। दूसरे रूप की प्रति भी जयपुर श्री गोविन्द ग्रन्थागार में ही विद्यमान बताई जाती है, जिस पर श्री हितहरिवंश गोस्वामिपाद विरचित अंकित है। इस रूप के संकलन भी कई महानुभावों का पहला श्लोक तथा ग्रन्थ रचयिता के परिचय देने वाला अन्तिम श्लोक नहीं है। इसमें 272 की बजाय 270 श्लोक ही हैं। उन दो श्लोकों को छोड़कर दोनों रूपों के सब श्लोक अक्षरशः एक हैं। उनमें कहीं भी ग्रन्थकार का परिचयय नहीं मिलता। दूसरे रूप के संकलनों में इस रचना के नाम में परस्पर मतभेद है। रसकुलिया के टीकाकार ने इस रचना का नाम ‘श्रीराधारससुधानिधिस्तव’ स्वीकार किया है। दूसरे तीन संकलनों में (जो लेखक के देखने में आए हैं) सबने मुख पृष्ठ पर “श्रीराधासुधानिधि” तथा अन्दर कहीं “श्रीराधासुधानिधि” और कहीं “श्रीराधारससुधानिधि” नाम का उल्लेख किया है। उन्होंन रस-शब्द निकाल डाला है। एक सम्पादक ने तो रस-शब्द को इस रचना के नाम में जोड़ने के लिए गौड़ीय वैष्णवों को दोषी ठहराया है। जबकि वह इस रचना को श्री हितहरिवंश रचित प्रमाणित करने के लिए मि. ग्राउस (MR. GROWSE) की मथुरा (MATHURA) नामक पुस्तक की पंक्तियां उद्धृत करता है - जिसमें मि. ग्राउस ने स्पष्टतः रस-शब्द का उल्लेख किया है - The Stotra-Kavya, named Radha Rasa-Sudha nidhi. दोनों रूपों के सम्पादकों ने इस रचना का 271 वां श्लोक अपने अपने संकलनों में स्वीकार किया एवं प्रकाशित भी किया है। उसमें ग्रन्थकार ने स्वयं इस रचना का नाम स्पष्ट किया है-स्तवोयं कर्णकलशैर्गृहीत्वा पीयतां बुधाः।।271।। हे बुद्धिमान जनो! यदि आपके हृदय में अद्भुत-आनन्द आस्वादन करने का लोभ है तो इस (राधा) रस सुधानिधि स्तव का कान रूपी कलशों से ग्रहण कर पान कीजिए। श्री हितसुधासार के मतानुसार भी इस रचना का नाम ‘श्रीराधारससुधानिधि’ प्रमाणित हो रहा है। षाण्मासिक कृत श्रीमद् “राधारससुधानिधिः”। अतः इस प्रकार का दोष कि “रस”-शब्द इस रचना के नाम में गौड़ीय वैष्णव अब जोड़ने लगे हैं, बिल्कुल निराधार है। अत्यन्त आश्चर्य की बात यह है कि अब हित हरिवंशी भी अब इस में ‘रस’-शब्द जोड़ने का दोष वहन करने लगे हैं। उन्होंने देखो बीसों संकलन हिन्दी में श्री राधासुधानिधि के छप चुके हैं और उनकी कपट कलाई उधर गयी है, तो ‘रस’ शब्द जोड़कर रंग बदलने लगे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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