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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
यह (श्रीवृन्दावनचन्द्र) अंगणित अवतारों के अवतारी महाधीश्वर ही हों अथवा दिव्य मूर्त्ति धारण कर द्वारका और मथुरा में रहें- (मेरा मन उनमें हरण नहीं होता) और मथुरापुरी के श्रेष्ठ वन-ब्रज में भी जब गौओं, गोपिकाओं, एवं सखाओं से घिरे रहते हैं, (तब भी मुझे इतना आनन्द नहीं मिलता) किन्तु ये जब श्रीराधा की कुंजो में जाते हैं- तब ही मेरा मन हरण हो जाता है।।87।।
श्रीवृन्दावन- एकमात्र कामात्मक-ज्योति का ही प्रकाशक है, सुविमल से भी सुविमल है, प्रोज्ज्वल से भी प्रोज्ज्वलतर है, माधुर्य के आपार समुद्र से भी मधुरता को भी उन्मत्त करने वाला है, पारावार (सीमा) रहित है, समस्त सुखों की चुमन्कारिता को भुला देने वाला है, इसके लतागुहों में विराजमान परम मनोहर श्रीयुगलकिशोर के दर्शन कर।।88।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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