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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
जैसे स्वतन्त्र हरिरस में स्वयं ही धावित होता है, वैसे ही परम पावन श्रीवृन्दावन पृथ्वीमण्डल में प्रकाशित होता है- परन्तु यदि श्रीवृन्दावन के स्थावर जंगमात्मक वस्तुओं के प्रति काय-मन-वाक्य से अपराधी होकर तत्त्व (विचार) बुद्धि बाधित न हो। (अर्थात् अपराधी होने में तत्त्व बुद्धि नाश हो जाती है जिससे श्रीवृन्दावन के प्रकाश का अनुभव नहीं होता)।।51।।
अहो! श्रीराधा एवं श्रीमुरलीधर के महाप्रेमसिन्धु में मग्न एवं उस गौरश्याम विग्रह के कान्तिमय आर-पार-विहीन समुद्र में जो निमग्न है, तथा उनकी शोभा और माधुर्य के सागर में डूबा हुआ मत्त यह श्रीवृन्दावन- जो माया एवं अविद्या का रचा नहीं, मेरे अन्तःकरण में स्फुरित हो ।।52।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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