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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
जो (व्याक्ति) निरन्तर रासस्थली में लुण्ठन करता है, श्रीकृष्ण के चरित्रो का पाठ करता है, ‘‘हा कृष्ण’’ रटता है एवं (श्रीवृन्दावन के) सर्वस्थानों पर भ्रमण करता है, उसके हृदय की नाना ग्रन्थियाँ (अविद्या, काम, कर्मादि) नाश होकर विशुद्ध भाव की स्फूर्ति होती है एवं वहीं अति भाग्यवान महापुरुष नृत्य तथा विशुद्ध भाव की स्फुर्ति होती है एवं वही अति भाग्यवान् महापुरुष नृत्य तथा संकीर्तन करते-करते अश्रु-धारा से श्रीवृन्दावन को पंकयुक्त (कीचयुक्त) कर देता है।।49।।
जो (स्थान) उत्कट काम स्वरूप है, अन्य रसों के थोड़े स्पर्श मात्र को भी जो सहन नहीं करता, जिस स्थान पर नित्य वर्द्धनशील रति के द्वारा उच्छलित रहमहासमुद्र नित्य प्रवाहित होता है, जहाँ स्थावर जंगम समस्त वस्तुएँ पर महाश्चर्यमय अनेक समृद्धि और निरन्तर वृद्धि के साथ रात-दिन प्रकाशित होती हैं- वही यह श्रीवृन्दावन मेरे हृदय में प्रकाशित हो।।50।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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