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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
जो अत्याश्चर्यमय अति महामाधुरीसार विशिष्ट रूप, शोभा-सौन्दर्यादि केलि, प्रेम वैदग्धी, अतुलनीय नवीन यौवन तथा सौभाग्यराशि को धारण कर विराजमान हैं एवं जो सहज रति-कला के आवेश में अत्यन्त चंचल हो रहे हैं- उन्हीं गौरश्याम श्रीयुगलकिशोर को श्रीवृन्दावन के कुंजों में सुललित एकान्त-रति के साथ मैं स्मरण करता हूँ।।32।।
अतुलनीय महाश्चर्य रूपालण्य के समुद्र एवं नित्य उत्तंग तरंगों के समान आकुल महाकाम-समुद्रवत श्रीयुगलकिशोर परस्पर अतिशय प्रेम की व्याकुलता के कारण अर्द्धत्रुटि (अति थोडे) समय के लिए भी एक-दूसरे का विरह धारण सहन नहीं कर सकते। सब अंगो में सदा उच्च पुलकावलि करते हैं एवं सदा गद्गद वाक्य बोलते हैं।।33-34।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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