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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
श्रीवृन्दावन में परस्पर कामक्रीड़ा के रस समुद्र की तरंगों से जिनके विग्रह झूम रहे है एवं जो तीव्र कामोन्मत्त हो रहे हैं, ऐसे प्रियतम युगलकिशोर को सखीगण ने बलपूर्वक भी वेषभूषा कराने में असमर्थ होकर कोई एक (अनिर्वचनीय) आनन्द आस्वादन करते हुए परिहास किया।।20।।
आहो! श्रीवृन्दावन के वैभव को शिव, ब्रह्मादि भी नहीं जान सकते, यह परम उज्ज्वल उन्मादकारी श्रेष्ठ रस की महासम्पत्ति की खान है, यह श्रीराधा-मुरलीमनोहर को भी महा- ’आश्चर्यभाव से सम्मोहन करने वाला है एवं श्रीमूर्त्ति के कान्ति-केलि-कौतुक आदि के आधिक्य में भी आश्चर्यजनक है- इसका (श्रीवृन्दावन का) मन में स्मरण कर।।21।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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