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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
आहो! वह श्रीश्यामकिशोर प्रति अंग में अनन्त अनंग-लीला समुद्र के द्वारा आनन्दित हो रहे हैं एवं माधुर्य-समुद्र के पद-पद में हर एक अंग को ही कोटिगुणा और अधिक प्रकाशित कर रहे हैं, तथा उसी आस्वादन में उन्मत्त होकर श्रीराधा का परम रसनिधि रूप इस श्रीवृन्दावन में कन्दर्प-दर्प के कारण प्रति निमिष में ही कोटि-कोटि विकारों को प्राप्त हो रहा है।।3।।
भक्तिपूर्वक नम्र होकर श्रीवृन्दावन के परमधन्य कृमि की भी मैं वन्दना करता हूँ, किन्तु अन्यत्र रहने वाले ब्रह्मादिक देवताओं को तृण के समान भी नहीं मानता। और अधिक क्या कहूँ? मेरी यह चतुरतापूर्ण बात पक्की है, क्योंकि श्रीवृन्दावन को छोड़कर श्रीकृष्ण भी तो पूर्णरूप से प्रतिभात नहीं होते।।4।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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