वृन्दावन महिमामृत -श्यामदास पृ. 13

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास

श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र

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एक दिन श्रीमन्महाप्रभु श्री बिन्दु माधव-हरि के दर्शन के लिए मन्दिर में पधारे वहाँ श्री मूर्त्ति का सौन्दर्य-माधुर्य आस्वादन कर श्री महाप्रभु प्रेमाविष्ट होकर नृत्य करने लगे। श्री चन्द्रशेखर, श्री तपन, श्री परमानन्द एवं श्री सनातन पाद भी श्री हरिनाम संकीर्तन करने लगे -
हरि हरये नमः कृष्ण यादवाय नमः।
गोपाल गोविन्द राम श्रीमधुसूदन।।

फिर क्या था? चारों ओर असंख्य दर्शनियों की, ‘हरि-हरि’ ध्वनि से आनन्द कोलाहल मच गया। निकटवर्ती सरस्वतीपाद के मठ में भी नाम ध्वनि ने अपूर्व आकर्षण पूर्वक प्रवेश किया। जगत्मान्य विज्ञानी, परम विरक्त, कौपीनधारी संन्यासी-शिरोमणि सरस्वती पाद अधीर हो उठे, और दण्ड कमण्डल छोड़ कर मन्दिर की ओर दौड़े- मानो श्री वृन्दावन के मत्र्जुल निकुत्रजों में श्री रास बिहारी की मदन मनहारी मुरली ने गोपांगनाओं का आह्वान किया हो। त्रिभुवन मोहन उस नृत्य परायण श्री राधा कृष्ण मिलित श्री गौर विग्रह की असमोध्र्व माधुरी का दर्शन कर सरस्वती पाद अपने को सम्हाल न सके। सबके साथ-साथ “हरि हरि” ध्वनि करने लगे। कम्प, स्वर भंग, प्रस्वेद, वैवर्ण्य, हर्ष-दैन्य-चापल्यादि संचारी विकार भी उनके शरीर पर उदय होने लगे। कुछ समय पश्चात श्रीमन्महाप्रभु को बाह्य हुआ और उन्होंने ज्यों की सरस्वती पाद को नमस्कार की, तत्क्षण श्री सरस्वती पाद के प्रभु के चरण युगल पकड़ लिए।

श्री महाप्रभु बोले - “ओहो! श्री पाद! आप तो जगद् गुरु हैं, परम पूज्य हैं। यह आप क्या करते हैं? मैं तो आपके दासानुदास के तुल्य भी नहीं हूँ। परम श्रेष्ठ होकर मुझ हीनाचार-मूर्ख की वन्दना? ठीक है! आप मायातीत ब्रह्म हैं और आपको “सर्वखल्विदं ब्रह्म” - ही यद्यपि भासता है, तो भी लोक-संग्रहार्थ ऐसा करना आपको उचित नहीं है।”

यह सुनकर श्री सरस्वती पाद के नेत्रों में अजस्र अश्रु धारा प्रवाहित होने लगी, वे विनीत-मस्तक, अवरुद्ध-वाणी एवं अत्यंत दैन्य पूर्वक कहने लगे- “प्रभो! कृपा कीजिए, अब और अधिक मुझे लज्जित न करिए। भगवन्! मैंने आपका महान् अपराध किया है। “चैतन्य की भाव-कालिमा काशी में नहीं बिकेगी” यह कहकर मैं स्वयं कलंकित हो चुका हूँ। पतित पावन! करुणामय!! आप स्वयं भगवान् हो। आपके चरणों को छोड़कर मेरे अपराधों के शोधन का और क्या उपाय है? आपके श्री चरण कमल ही सर्व अमंगलों के नाशक एवं समस्त मंगलों के स्रोत हैं। मैं आपकी शरण हूँ।”

श्री महाप्रभु ने कहा - “विष्णु! विष्णु!! सरस्वती पाद! मैं तो क्षुद्र जीव हूँ। जीव को भगवान् मानना, यही तो अपराधों का मूल है।”

सरस्वती पाद ने कहा - “हे गौरांग! आप निस्सन्देह साक्षात् स्वयं-भगवान् हो।” यद्यपिआप मेरे परम इष्ट हैं। हे पावन! आपके चरणों में मेरी भक्ति बनी रहे। मैं आपको कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।”

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. परिव्राजकाचार्य श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र 1
2. व्रजविभूति श्री श्यामदास 33
3. परिचय 34
4. प्रथमं शतकम्‌ 46
5. द्वितीय शतकम्‌ 90
6. तृतीयं शतकम्‌ 135
7. चतुर्थं शतकम्‌ 185
8. पंचमं शतकम्‌ 235
9. पष्ठ शतकम्‌ 280
10. सप्तमं शतकम्‌ 328
11. अष्टमं शतकम्‌ 368
12. नवमं शतकम्‌ 406
13. दशमं शतकम्‌ 451
14. एकादश शतकम्‌ 500
15. द्वादश शतकम्‌ 552
16. त्रयोदश शतकम्‌ 598
17. चतुर्दश शतकम्‌ 646
18. पञ्चदश शतकम्‌ 694
19. षोड़श शतकम्‌ 745
20. सप्तदश शतकम्‌ 791
21. अंतिम पृष्ठ 907

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