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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
नवीन लता में नवीन कालिका निकल रही है और बहु कुसुम विकाश के छलरूप हास्य से संशोभित है, वह नव स्तवक से मण्डित है एवं उससे नव मधुधारा निःसृत हो रही है- इस प्रकार की लता का तरुण तमाल वृक्ष के साथ मिलन देखकर, अति विह्वल चित्त होकर मेरी स्वामिनी श्रीवृन्दावन में मूर्च्छित होकर जब गिरने लगीं तब किसी सखी ने उन्हें धारण कर लिया।।84।।
नित्य एकमात्र शद्धानन्दरस समुद्र के महावर्तों में भ्रमणकारी, नित्य आश्चर्यमय अवस्था, विलास, शोभा एवं माधुर्यादि को प्रकाशित करने वाले तथा अतिशय आनन्द के आधिक्य के कारण बारम्बार पुलकित अंग होकर सखी समाज में नृत्य करने वाले, श्रीवृन्दावन में विराजमान उन गौर-नील वर्ण विशिष्ट श्रीयुगलकिशोर को मैं भजन करती हूँ।।85।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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